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हास्य-व्यंग्य >> खेद नहीं है

खेद नहीं है

मृदुला गर्ग

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7540
आईएसबीएन :9789380146379

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ये सभी लेख पिछले कुछ वर्षों से ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका में ‘कटाक्ष’ स्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित हो रहे हैं...

Khed Nahi Hai - A Hindi Book - by Mridula Garg

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मृदुला गर्ग की छवि पाठकों के बीच अब तक एक कथाकार की रही है। धीर-गंभीर पर ऐसा कथाकार, जिसके कथानकों में व्यंग्य की सूक्ष्म अंतर्धारा बहती है। इस पुस्तक में संकलित लेखों से गुज़रने के बाद यह धारणा पुष्ट होगी कि खाँटी व्यंग्य-लेखन की रसोक्ति पर भी उनका पकड़ प्रभावी है। इनमें वे जिस पैनेपन से व्यवस्था में धँसे विद्रूप की काट-छाँट करती हैं उसी तर्ज़ पर पूरे खिलंदड़ेपन के साथ हमारे भीतर उपस्थित विसंगतियों को भी सामने ला खड़ा करती है।

दरअसल, ये सभी लेख पिछले कुछ वर्षों से ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका में ‘कटाक्ष’ स्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित हो रहे हैं, जिनके ज़रिए वे अपने आसपास पसरी विडंबनाओं की शिनाख़्त कर पाठकों के सामने पेश करती हैं, बिना किसी लाग-लपेट के। जब जहाँ जैसा ठीक लगा, उसे वहाँ वैसा ही बयान कर दिया। कोई बंदिश नहीं। न भाषा की, न शैली की और न ही विधा की। पर उनकी इसी अनुशासनहीनता से ये लेख विशिष्ट बन पड़े हैं। मज़े की बात यह भी है कि इस बेतकल्लुफ़ी को लेकर उनके मन में ज़रा भी ‘खेद नहीं है।’
इन्हें पढ़ना इसलिए भी ज़रूरी है कि इस बहाने हमें ख़ुद पर हँसने का मौक़ा मिलेगा। और शायद सोचने का भी।

 

यहाँ क्षण मिलता है

 

हम सताए, खीजे, उकताए, गड्ढों-खड्ढों, गंदे परनालों से बचते, दिल्ली की सड़क पर नीचे ज़्यादा, ऊपर कम देखते चले जा रहे थे, हर दिल्लीवासी की तरह, रह-रहकर सोचते कि हम इस नामुराद शहर में रहते क्यों हैं ? फिर करिश्मा ! एक नज़र सड़क से हट दाएँ क्या गई, ठगे रह गए। दाएँ रूख फलाँ-फलाँ राष्ट्रीय बैंक था। नाम के नीचे पट्ट पर लिखा था, यहाँ क्षण मिलता है। वाह ! बहिश्त उतर ज़मी पर आ लिया। यह कैसा बैंक है जो रोकड़ा लेने-देने के बदले क्षण यानी जीवन देता है? क्षण-क्षण करके दिन बनता है, दिन-दिन करके बरसों-बरस यानी ज़िंदगी। आह, किसी तरह एक क्षण और मिल जाए जीने को।

बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तप-जप कर माँगते रहे, एक क्षण फालतू न मिला। जो ईश्वर देने को राज़ी न हुआ, बैंक देता है, वह भी शहर दिल्ली में, जहाँ किसी को रोक, रास्ता पूछो तो यूँ भगा लेता है जैसे बम फटने वाला हो। फटता भी रहता है।
किस किस्म के क्षण देता होगा बैंक ? बचकाने, जवान या अधेड़ ? हम कैसे भी लेकर खुश थे। कितने तक देता होगा ? दस-बीस, सौ, हज़ार कितने ? जितने मिलें, हम लेने को तैयार थे। पर मुफ्त देने से रहा। दाम लेता होगा। फी क्षण कीमत बाहर लिखी नहीं थी। पर भला कीमत, वज़न, माप, सब दुकान के बाहर थोड़ा लिखा रहता है। जो जाएँ भीतर, पूछें, किस दर बेचते हो क्षण ?

मन में जितना उछाह था, उतना असमंजस। धड़ल्ले से जा घुसने से कतरा रहे थे। दिल काँप-काँप उठता है, सपना न हो कहीं। आँखें बंद कर लेते हैं और खोलने से कतराते हैं कि हरियाली, वीरानी या कचरे का ढेर न निकले।
अब भी आँखें बंद कर, दोबारा खोलीं। पट्ट पर वही लिखा दिखा। यहाँ क्षण मिलता है। हमने जेब टटोली। फिर क्षण के तसव्वुर में ऐसे खोए कि बीच सड़क ठाड़े, जेब के मुसे-तुसे नोट गिनने लगे। जितने खरीद पाएँगे, खरीद लेंगे। पैसे का क्या है, हाथ का मैल है। जुगाड़ बिठा, दोबारा हाथ गंदे कर लेंगे। दिल्ली शहर में मैल की क्या कमी ?

तभी पीछे से आकर तिपहिया, सीधा कमर से टकराया। हम दिल्ली की सड़क मानिंद, दुहरे-तिहरे मोड़ खा, वापस इकहरे हुए और काल्पनिक बहिश्त से निकल असलियत में आ लिए। कमर को हाथों से दबा, खतरनाक सड़क छोड़, बैंक की चौखट पर जा टिके। तसव्वुर में क्षण पाने का खयाल इस कदर दिलकश था कि उसे छोड़ हकीकत से रू-ब-रू होने से कतराते रहे। जन्नत बख्शते पट्ट के सामने इंची-भर जगह में खुदी को समाए, दम साधे उस मिल्कियत को मन ही मन भोगते रहे, जो क्षण-भर बाद हाथ में होनी थी। साथ ही क्षण के जितने पर्याय थे, उनका स्वाद भी चखते गए।

एक होता है, छोटे से छोटा क्षण। निमिष। उस नाम से बनारस में मिठाई भी मिला करती है। लब और ज़बान पर रहे निमिष-भर, जैसे दूध का बुलबुला। हम पता नहीं कितने पल, निमिष चखते खड़े रहते, अगर बैंक के दरवाज़े पर ख़ड़ा मुछंदर दरबान चीखकर हमें चौंका न देता, ‘‘एइ, इधर खड़ा-खड़ा क्या करता है, आगे बढ़ो।’’

यह भी दिल्ली शहर की खासियत है। दरबान रखे जाते हैं, फूहड़ ज़बान में आने-जाने वालों को भिखमंदा मसूस करवा, चलता करने के लिए। क्षण पाने के खयाल से कुप्पा हुए हम, कमर सीधी कर अकड़ लिए। तमककर बोले, ‘‘बैंक के भीतर काम है, आगे क्यों जाएँ ?’’ उसे कौन पता होनी थी, अपनी जेब की औकात कि बमुश्किल दो-चार क्षण खरीद पाएँ शायद।
‘‘तो घुसो भीतर, बाहर क्यों खड़े हो ?’’ वह गरजा। इसे कहते हैं, चित्त भी तेरी, पट भी तेरी।

सुखद काल्पनिक क्षणों का भोग और ऊहापोह छोड़, आखिर हम बैंक के भीतर घुस गए। कई काउंटर दिखे। एक कोने से दूसरे कोने तक निगाह दौड़ाई। नकदी भुगतान, बचत खाता जमा, पासबुक आदि के काउंटर दीखे, पर क्षण का न दिखा।
सोचा, ठीक भी है। जैसे पूँजी निवेश करने या कर्ज़ लेने के लिए मैनेजर के हाथ में दरख्वास्त देनी होती है, वैसे ही क्षण प्राप्त करने के लिए, उस हस्ती के पास जाना होगा। आलतू-फालतू काउंटर पर थोड़ा ऐसी नायब वस्तु मिलेगी।

आदत न थी, इसलिए सकुचाते, झिझकते मैनेजर के कक्ष में दाखिल हुए। भीतर हुए तो मैनेजर मैनेजरी अदा से हमे घूरकर बोला, ‘‘येस ?’’
हिकारत से सनी नज़र और अंग्रेज़ियत से सना ‘येस’ क्या सुना, हम हिंदी भूल, क्षण का अंग्रेजी पर्याय तलाश उठे। बोले, ‘‘यहाँ मोमेंट मिलता है ?’’

‘‘मोमेंट ?’’ वह बोला, ‘‘ओ यू मीन मोमेंटो। येस, पंद्रह लाख डिपॉजिट होने से बैंक मोमेंटो देता है। आपका है ?’’
‘‘मोमेंटो नहीं जी,’’ पंद्रह लाख की रकम सुन हम गश खा गए, पर किसी तरह बाहोश रह, हकलाए, ‘‘मोमेंट। बाहर लिखा है, यहाँ क्षण मिलता है।’’
‘‘ओ लोन,’’ वह बोला, ‘‘ऐसा बोलो न। हाँ, लोन मिलता है, कौन-सा चाहिए काल लोन, होम लोन या पर्सनल लोन। सालाना इनकम, एज, प्रॉपर्टी कितनी ?’’

‘‘रुकिए हुज़ूर, लोन नहीं, बाहर क्षण लिखा है।’’
‘‘सरकारी रूलिंग है, हिंदी में लिखो, तो लिखना पड़ता है। उससे क्या ?’’
‘‘पर क्षण क्यों लिखा है ?’’
‘‘अरे बाबा, क्या फर्क पड़ता है। आपको जो कहना हो कहिए, लोन, क्षण, कर्ज, बात वही रहेगी। बतलाइए, कौन-सा लोन चाहिए...’’

‘‘चुप !’’ हम तमीज़-तहज़ीब भूल चीख दिए, ‘‘लोन को हिंदी में क्षण नहीं कहते।’’
‘‘तो क्या कहते हैं ?’’
‘‘ऋण।’’
‘‘वही तो लिखा है, जो आप बोला रिन, शन, एज इन लोन।’’

‘‘क्षण होता है मोमेंट, ऋण होता है लोन।’’
‘‘क्या फर्क पड़ता है, सरकारी रूलिंग है, हिंदी में लिखो, तो लिख देते हैं। श हो या रि, है तो हिंदी न ? लेने वाले जो लेंगे, वह होगा लोन। अ रोज़ बाइ एनी अदर नेम वगैरह,’’ कह वह आत्ममुग्ध मुस्कान मुस्कराया। फिर सख्त पड़ बोला, ‘‘आपको चाहिए तो कहिए वरना...दरबान !’’
हम दरबान के आने से पहले ही गश खाकर गिर पड़े।

 

(26 नवंबर, 2008)

माँ बोली नहीं, पूत वाली

 

हमने सोचा था कि ये जो सज्जन बरसों बाद हमारे गरीबखाने पर तशरीफ ला रहे हैं, और कुछ करें न करें, एक सुख ज़रूर देंगे। उनका जन्म हुआ है राजस्थान में। लड़कपन छोड़ जवानी भी वहीं काटी। पलायन किया तो अधेड़ होकर। बसे तो मध्य प्रदेश में। दोनों प्रदेश ठहरे धाकड़ हिंदीभाषी। चलिए माना बाल की उस खालखिंचाई को, जो गंगा किनारे के नामी छोरे ने की कि दोनों बोलते हैं अपनी-अपनी माँ बोली, किताबी हिंदी नहीं। यानी बोलते हैं अपने-अपने अंचल की बोली। तो हमीं कौन आप सरीखी सीधी-तनी, विश्वविद्यालयी खड़ी हिंदी में बात करते हैं। हमें नम्रता में कमर, सिर झुकाने से ज़रा एतराज़ नहीं। माँ बोली का मतलब ही है वह, जो रस सोखने और देने को तैयार हो। खट्टी में तीती और मीठी में सोंधी बानी मिलाती चले कि लगे, हाँ, बोलने वाले की मांस-मज्जा से बनी एक असल माँ थी। वह उसे उसके ज़िंदा रहते भी सुनता-गुनता रहा था। मरे बाद याद कर हमदर्दी या वाहवाही लूटने को न बचा रखी थी।

सो, राजस्थान और मध्य प्रदेश के मेल से सिंचे महानुभाव से उम्मीद होनी वाजिब थी। फिर वे करीब-करीब अपनी उम्र के थे। सोचा, कम अज़ कम आज, दूसरे को खाना परोसने के दौरान खुद खराब अंग्रेज़ी की खुराक नहीं खानी पड़ेगी। हम खुशी-खुशी मेहमाननवाज़ी के इंतज़ाम में लगे, पर क्या बतलाएँ, क्या गुज़री हालेदिल पर जब वे गैर-रहियशी हिंदुस्तानियों की मानिंद, अंग्रेजी की टाँग तोड़ते हमारे गरीबखाने में दाखिल हुए।

कुल जमा चार-पाँच बरस पहले मिलना हुआ था। तब, ‘पधारें’, ‘बिराजें’, ‘बाईसा’, ‘हुकुम’ से पगी उनकी हिंदी ने दिल को किस कदर सुकून पहुँचाया था। आधी राजस्थानी, आधी हिंदी सही, थी तो माँ बोली। हमें उनकी माँ को अपनी माँ मानने में तनिक एतराज़ न था, पर यह एक टाँग पर लड़खड़ाती अंग्रेज़ी तो किसी अंग्रेज़ की माँ जोगी नहीं थी, तो हमारी किस बिध बनती। इतने कम वक्फे में ऐसा क्या कहर बरपा कि वे अनाथ हो रहे। बेचारों को दाई माँ मिली भी तो लँगड़ी।

नौजवान रहे होते तो हम सोचते, ज़रूर मुल्क में चहुँओर फैली बेरोज़गारी से जद्दोज़हद ने बेज़बान कर दिया होगा। जवान हमारा मतलब समझ गए होंगे। आजकल अपने देश में बढ़ती आबादी, बढ़ते विश्व बाज़ार और निजी उद्योग की बदहाली के संगम ने एकदम नए किस्म का वक्त पैदा कर दिया है। अब हम पर किसी विदेशी हुकूमत का दबाव नहीं है। हम पूरी आज़ादी से अपनी ज़ाबान को खुद पराया बनाते हैं। मजबूरी कोई है तो पेट पालने की। पहले, कम पढ़े नौजवान, उद्योग से बरी और खेती से चौपट गाँव से भाग शहर आते हैं। फिर वहाँ बेरोज़गारी के आलम में, अपने ही देश में बेगाने होकर जीना सीखते हैं।

अंग्रेज़ी में उसे ‘आउटसोर्सिंग’ कहते हैं। हिंदी में तर्ज़ुमा करें तो मानी होंगे, जो हर तरफ से आउट, यहाँ से भी, वहाँ से भी। यानी नागरिक के बदले, कॉल सेंटरों में सोर्स बनकर जीने को अभिशप्त। कॉल सेन्टर हुआ दूतावास का छोटा संस्करण। मुल्क हमारा मगर रहन-सहन, बोली-ठोली, अदब-कायदा दूसरे मुल्क का। कॉल सेंटरों में काम करने के लिए यूरोप के जिस मुल्क के सोर्स बनो, उसकी बोली-बानी उसी के लहज़े में बोलनी पड़ती है। पर हर हाल उस मुल्क से आउट ही रहते हैं। साथ ही अपनी बोली से भी। उसे बोलें तो रोज़गार से ही आउट हो लें और सोर्स भी न बन पाएँ।

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